प्रबंधक संदेश
शिक्षा में हम कहाँ जा रहे हैं?
शिक्षा मनुष्य के जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्य है, इसके साथ ही साथ अन्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक उपयोगी साधन है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं बुद्धि का विकास करके उसे आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सम्पन्न कराने में सहयोग प्रदान कराती है, उसके योग्य बनाती है। यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि, शिक्षा सभी को नेता नहीं बना सकती, परन्तु किस नेता का अनुसरण करना है, यह अवश्य सिखा सकती है। यह समाज की आत्मा है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाती रहती है। यह वह साधन है जिसके माध्यम से व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और उसमें समाहित गुणों के माध्यम से राष्ट्र को उन्नतिशील बनाया जा सकता है।
शिक्षा का अर्थ है - खुला दिमाग तथा आत्मसंयम। खुले दिमाग से मनुष्य परिस्थितियों एवं घटनाओं पर अपनी यथार्थ दृष्टि रखता है तथा उसके अनुरूप ही अपने कर्तव्यों का निर्धारण करता है। कर्तव्य ‘स्व’ से परे परिवार, गाँव, क्षेत्र एवं समाजहित में परिलक्षित होना चाहिए और इस प्रकार से निर्णय लेने की क्षमता जिस माध्यम से विकसित हो उसे ही शिक्षा कहते हैं। इसी सन्दर्भ में महामना मदन मोहन मालवीय जी का कथन है कि, ”व्यक्ति और समाज के अभ्युदय के लिए बौद्धिक विकास से भी अधिक महत्वपूर्ण है - चरित्र का निर्माण और उसका विकास।“
ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। संस्थायें ऐसी जगहों पर हैं, जहाँ पहुँच पाना दुर्लभ है। कहीं-कहीं विद्यालयों का स्वरूप फाईलों के अन्दर ही देखने को मिलता है। विद्यालयों में अनिवार्य सुविधाओं का अभाव होता है। कहीं भवन नहीं होते हैं, कहीं पीने को पानी नहीं तो कहीं शौचालयों की व्यवस्था अनुपलब्ध है। परिणामतः बच्चे मजबूरी में खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी व बरसात में पढ़ते हैं। यही नहीं विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षकों का अभाव है। वहीं पर शहरी क्षेत्रांे के विद्यालय सम्पूर्ण संसाधनों से पूर्ण है। इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी अपने बच्चों को शहरी क्षेत्रों में भेजने के लिए विवश होते हैं। वर्तमान् परिवेश में कोई भी व्यक्ति अपने को शिक्षक के रूप मंे ढ़ालने का प्रयास नहीं करता है, परिणाम स्वरूप योग्य व कर्मठ शिक्षकों का अभाव है।
प्राईवेट विद्यालयों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति तो की जाती है, परन्तु इनकी योग्यताओं का शोषण किया जाता है। शहरी क्षेत्रों के स्वयं संचालित होने वाले विद्यालय योग्यताओं के अनुरूप न तो उनका मूल्य निर्धारण करते हैं, और न ही उनकी योग्यता के अनुसार उनका सम्मान किया जाता है। इसप्रकार मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक शोषण से योग्य शिक्षक पीड़ित होकर अपनी योग्यताओं का सही मूल्य समाज को नहीं दे पाता है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार की झूठी तस्वीर प्रस्तुत कर स्वयं सेवी संस्थायें उत्कृष्ट कार्यों के लिए पदक एवं प्रशस्ति प्राप्त कर लेती हैं।
शासन प्रशासन को वास्तविकता का आभास ही नहीं कि प्राप्त शिक्षा सामग्री, अनुदान राशि मिलते ही रद्दी के भाव बेच दी जाती हैं। प्रबन्धक, प्रधानाचार्य एवं संलग्न अध्यापकों की टूटी-फूटी झोपड़ी बहुमंजिली इमारतों मंे बदल जाती हैं। घरों में साईकिल की जगह लग्ज़री कारें आ जातीं हैं। अर्थात्, अनुदान मिलते ही व्यक्ति विशेष का आर्थिक एवं सामजिक स्थिति में बदलाव हो जाता है। शिक्षक के कार्य व नामों में बदलाव आता गया और हमारी सरकारें शिक्षा के नाम पर प्रयोग करती रहीं। परिणाम स्वरूप शिक्षा का स्तर लगातार गिरता रहा। डिग्रियाँ तो मिलीं परन्तु ज्ञान नहीं मिला। बी0ए0, एम0ए0, बी0एससी0, एम0एससी0 जैसी डिग्रियाँ लेकर भी लोग अपना नाम भी नहीं लिख पाते हैं। ऐसे में क्या ये डिग्रीधारक देश निर्माण में अपना सहयोग कर सकेंगे - एक विचारणीय प्रश्न है। आधुनिकतम वैज्ञानिक तकनीकी के दौर में ऐसे ज्ञान पर क्या हम अन्य देशों के ज्ञान स्तर से तुलना कर पायेंगे? यह असंभव प्रतीत होता है, क्योंकि हम शिक्षा में भी आरक्षण कर योग्यताओं एवं प्रतिभाओं की तिलांजलि दे रहे हैं। विदित हो कि प्रतिभा, योग्यता, ओजस्विता किसी आरक्षण की मोहताज नहीं होती। वर्ष 1997 में शिक्षा गारंटी योजना प्रारम्भ की गई थी, जिसमें शिक्षक की योग्यता का उल्लेख मिलता ही नहीं है। वातानुकूलित कक्षों मंे बैठकर नीति निर्धारण करने वाले नियोजकों को न तो गाँवों की जानकारी है और न ही वे गरीब बच्चों के आहत से पीड़ित हैं।
राष्ट्रीय नीति के तहत प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के लिए आकर्षक और लुभावने नाम दिये गये, जैसे - गुरू जी, शिक्षा मित्र, शिक्षा प्रेमी, लोक मित्र, पैरा टीचर आदि। नाम के साथ ही साथ शिक्षकों के कार्य में बदलाव आया। विद्यालयों मंे नियुक्त अध्यापक शिक्षण कार्य के बजाए मतदाता सूची बनाता है, पल्स पोलियों कार्यक्रम में भाग लेता है, विद्यालय भवन का निर्माण करवाता है, साक्षरता अभियान चलाता है, मध्यान्ह भोजन वितरण करवाता है तथा जनगणना आदि कराता है। शिक्षण कार्य के स्थान पर उपरोक्त कार्यों को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि शिक्षक इन कार्यों में होने वाली कमी पर तत्काल दण्ड का भागी हो जाता है। ऐसी स्थिति मंे शिक्षक के पास शिक्षण कार्यों के लिए समय ही कहाँ बच पाता है। विचारणीय यह है कि, क्या हमारे नौनिहाल इन्हीं शिक्षकों से शिक्षित होकर देश प्रगति में सहभागी होंगे? ये वे शिक्षक हैं, जो छात्रों को अनुशासित करने का तरीका ही भूल चुके हैं और वर्तमान् परिदृष्य में मात्र सरकारी कार्यकर्ता बन गये हैं।
ज्ञातव्य हो कि, परिषदीय प्राथमिक विद्यालय ग्रामीण अंचलों में शिक्षा की रीढ़ माने जाते हैं, ये शिक्षा के प्रवेश द्वार हैं, बच्चों को जीने की कला सिखाने का स्तम्भ हैं तथा उनके चेहरे की मुस्कान हैं। अतः इनको संवारना हमारा सामाजिक दायित्व बनता है। सभी सरकारें ग्रामीण विकास की बात तो करती हैं, परन्तु इसके लिए किये जाने वाले प्रयासों में भारी कमी रहती है। यहाँ आवश्यकता है, योजनाओं को सरकारी फाईलों से निकाल कर यथार्थ स्वरूप मंे क्रियान्वित करने की।
विडम्बना है कि, विद्यालयों की मान्यताओं से लेकर केन्द्र निर्धारण तक शिक्षा अपने माफियाओं के सुनियोजित मकड़जाल में फंस कर रह गई है। सत्ता लोलुप लोगों ने आम आदमी को नियंत्रित करने के उद्देश्य से शिक्षा को आदर्श विहीन करने में कोई कमी न रखी। सत्ता संचालन में सुगमता लाने में ऐसी आदर्श व आचार विहीन शिक्षा ही सर्वथा उपयोगी होती है। अन्दर की ईमानदारी समाप्त कर दी जाए तो उत्कृष्टता, प्रभाव एवं योग्यता के बजाए जोड़-तोड़, सम्पर्क एवं दलालों को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक है। सबसे अयोग्य व्यक्ति के आधार पर मानक निर्धारित कर दिया जाए तो सुधार की ओर बढ़ने की प्रेरणा ही समाप्त हो जाएगी। ऐसे में शिक्षा मात्र आडम्बर का रूप लेती गई और आदर्शों में निष्ठा रखने वाले समाज से परे होते गये।
ऐसे में आज शिक्षा का स्वरूप आय-अर्जन का आधार बनता जा रहा है। विश्वविद्यालयी शिक्षा भी एक पण्य पदार्थ (वस्तु) बन गई है, जहाँ वरिष्ठतम् पद भी मोल भाव से निर्धारित हो रहे हैं। परिणाम स्वरूप पाठ्यक्रम से लेकर अनुसंधान कार्य तक तथा परीक्षा से लेकर परिणाम घोषित होने तक की बोलियाँ लग रही हैं और शोषित होते हैं - छात्र, अभिभावक एवं आदर्शो से नियंत्रित होने वाले शिक्षक।
शिक्षण संस्थान, व्यक्ति के चरित्र निर्माण की संस्था के रूप में नहीं वरन् अर्थ दोहन के लिए महत्वपूर्ण माध्यम बनते जा रहे हैं। यही कारण है कि, हमारे पास भक्ति है - उत्तरदायित्व की प्रक्रिया नहीं है, विचार हैं - परन्तु तार्किक प्रक्रिया नहीं हैं, शब्द हैं परन्तु उनका कोई अर्थ नहीं है।
प्रशंसनीय है कि, हम विचारोन्मुख हैं और इसी लिए कहते हैं कि जब हम किसी पुरूष को शिक्षित करते हैं तो एक व्यक्ति शिक्षित होता है और जब हम किसी महिला को शिक्षित करते हैं तो पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं और परिवार से समाज तथा समाज से ही देश का विकास सम्भव है। हमारा इतिहास गवाह है कि, वैदिक काल में स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। इन्द्राणी, मैत्रेयी, गार्गी, लोप, मुद्रा एवं सरपरागी आदि जैसी वैदिक कालीन विदुषी महिलाओं का नाम भी जानने के लिए आज हमंे प्रयास करना पड़ता है। मुगल काल में साधारणतया महिलाओं की दुर्दशा बढ़ती चली गई और वर्ष 1800 के आते आते इनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो गई। 1854 में शिक्षा सुधार के बाद जागृति आयी और 1922 के बाद महिलाओं की शिक्षा को भी वास्तविक रूप में बढ़ावा मिला।
गणतन्त्र की पहचान एक आदर्श नागरिक से होती है। सिर्फ गणतन्त्रीय संविधान की रचना से ही कोई राष्ट्र गणतन्त्र नहीं होता वरन् गणतन्त्री समाज शिक्षा के स्तम्भ पर ही स्थापित किया जा सकता है। प्राचीन भारत विश्वगुरू के रूप मंे विख्यात था तो उसके पीछे कर्मठता एवं बौद्धिकता ही रही।
डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं, न ही यह विचारों की संवर्धन स्थली है और न ही नागरिकता की पाठशाला है। यह आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश की दिशा है, सत्य की खोज में लगी मानव आत्मा की प्रशिक्षक है। इसी रूप मंे हमारा देश अपनी परम्परा के अनुसार एक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था का ढ़ांचा करके ही ठीक कर सकता है। जिसमें सत्य व सत्ता का सामंजस्य हो और राष्ट्र तभी विकसित होगा, जब शिक्षा को किसी बैण्ड के रूप में नहीं लेंगे। ज्ञात हो कि - शिक्षा कोई बैण्ड उत्पाद नहीं है - डिप्लोमा, व्यवसाय, धन इस क्रम में नहीं हैं। यह तो एक सतत् प्रक्रिया है।
डॉ ब्रजेश कुमार सिंह
रघुनाथ सिंह इण्टर काॅलेज,
पैना, देवरिया