ब्रह्मलीन गुरू अनिरूद्ध सिंह 'एक समर्पण’
ब्रह्मलीन गुरू अनिरूद्ध सिंह
'एक समर्पण’
कुछ भी कहने से पहले मैं अपने पिता एवं जीवन गुरु को समर्पित करते हुए यह श्लोक
पढ़ रहा हूँ जिसका अर्थ भी मैंने समझने की धृष्टता की है और विश्वास है कि आप सब भी
समझेंगे - '
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तप: ।
तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥
अर्थ है … मैं अपने उस गुरू को प्रणाम करता हूँ जिससे अधिक कोई दूसरा सत्य नहीं
हैं जिससे बड़ा कोई दूसरा तपस्वी नहीं एवं कोई भी ऐसा सत्य ज्ञान नहीं जो आपसे अधिक हो।
वर्तमान के बरहज तहसील के इसी पैना ग्राम में माता दयावती एवं पिता रघुनाथ सिंह
जी के सबसे छोटे पुत्र रत्न के रूप में दिनाक 18 जुलाई 1927 को आपका उद्भव हुआ ।
परिवार में आपके बाबा निर्भय सिंह जी का शुरु से ही शिक्षा के प्रति काफी लगाव था । ऐसे में
उन्होंने आपके पिता रघुनाथ सिंह जी की शिक्षादीक्षा पर काफी ध्यान दिया । पिता से प्राप्त शिक्षा
की "ज्योति को विस्तारित करते हुए श्री रघुनाथ सिंह जी ने भी अपने बच्चों को शिक्षा के
प्राथमिकता का महत्व समझाते हुए इसके प्रति सदैव अग्रेसित किया । बड़े दोनो भाई शिक्षित
होकर राजकीय सेवा करने लगे परन्तु अनिरूद्ध सिंह जी ने अपने पिता के समान ही एक शिक्षक
का जीवन चुना ।
ग्रामीण परिवेश में ही आपने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इसी ग्राम में प्राप्त की । "छोटी उम में
ही पिता के देहावसान के बाद बड़े भाई गोपीनाथ सिह जी ने इन्हें अपने पास मिर्जापुर बुला
लिया तथा जूनियर हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने तत्कालीन लंदन मिशन हाई स्कूल जो वर्तमान
में बाबू लाल जायसवाल इंटर कॉलेज के नाम से है, से प्राप्त की । हाई स्कूल तक की शिक्षा
प्राप्त करने के पश्चात अपनी बड़ी भाभी की प्रेरणा से प्रेरित होकर उदय प्रताप इण्टर कॉलेज,
वाराणसी से इण्टर तक की शिक्षा प्राप्त की । परिवार में शिक्षा के प्रति जागरूकता का आभास
इससे भी मिलता है कि परिवार की महिलायें भी शिक्षा के महत्व को सर्वोपरि रखती थीं । आगे
की शिक्षा में अपने दूसरे बड़े भाई केशव नाथ सिंह जी के सहयोग से बनारस हिंन्दू
विश्वविद्यालय के स्नातक किया तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर
करने के बाद वापस वाराणसी आकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी0एड0 की उपाधि प्राप्त
की । उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी पिता की भाँति ही- ध्येय था, शिक्षा के प्रति जीवन को
समर्पित करना ।
जीवन वृत्ति के अनेको अन्य सुलभ और आसान विकल्पों की उपलब्धता' के बाद भी आपने
पैतृक गुणों से पोषित विचारों से प्रेरित होकर शिक्षण कार्य को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया ।
इसी की प्राप्ति को ध्यान में रखत हुए वर्ष 1949 में सर्वप्रथम प्रवक्ता जीवविज्ञान के पद पर
हर्षचंद इंटर कॉलेज, बरहज में शिक्षण कार्य प्रारम्भ किया और शिक्षक जीवन यात्रा में विभिन्न
प्रतिष्ठित शिक्षण सरथाआँ में अपना योगदान देते हुए गोरखपुर के तत्कालीन सर्वप्रतिष्ठित
राजकीय जुबिली इण्टर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद से वर्ष 1986 में सेवानिवृत्त हुए ।
जीवन के विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए आपने शिक्षा में होने वाले अनेकों उतार-चढाव
का अनुभव किया । आपके ही शब्दों में -
....... अपने उम्र के सत्तासी वर्षो के अनुभव में मैंने अनुभव किया है, कि पूर्व में शिक्षा का
अर्थ व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व का विकास था । शिक्षक-शिक्षार्थी का आदर्श हुआ करता था ।
शिक्षक और शिक्षार्थी का सम्बन्ध जीवन पर्यन्त एक सूत्र में बंधा रहता था । शिक्षक अपने
शिक्षार्थियों को केवल जीविकोपार्जन हेतु ही तैयार नहीं करता था वरन् उसे सच्चे रूप ने
मानव-मानवीय संवेदनाओं से संयुक्त करता था । आज भी मेरे पढ़ाये हुए पुरातन छात्र जो जीवन
के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित पदों पर हैं उसी पुरातन भाव से मिलते हैं … यह एक शिक्षक के
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
आज हम जिस विद्यालय प्रांगण में इसके 30वें स्थापना दिवस के आयोजन पर एकत्रित
हुए हैं यह भी शिक्षक-शिष्य परम्परा की ही देन है । स्व० शिवनन्दन भगत ने अपने गुरू श्री
रघुनाथ सिंह जी की स्मृति में ही उन्ही के नाम पर इस विद्यालय की स्थापना करने में अपूर्व
योगदान दिया है । अनिरूद्ध सिंह जी स्वयं भी इस परम्परा से इतने प्रभावित थे, कि सेवानिवृत्ति
के बाद भी अपने गांव में शिक्षा की अलख को जगाये रखने के लिए अपना प्रयास जारी रखा ।
गाँव आने के बाद विद्यालय को जीर्णशीर्ण अवस्था में देख कर है काफी दुखी हुए और आगे का
अपना सारा जीवन इसी विद्यालय के उत्थान में समर्पित कर दिया । आज हम विद्यालय का यह
जो स्वरूप देख रहे हैं, वह उन्ही के अथक प्रयासों का परिणाम है ।
ईमानदारी, कर्मठता एव मानवोचित गुण उनक लिए सिर्फ किताबों के शब्द ही नहीं वरन
उन्होंने इन्हें अपने जीवनकाल में स्वयं साकार किया है । आजीवन इन्हीं गुणों के पालन की शिक्षा
भी अपने शिष्यों को संस्कारी होने के लिए दी । उनके अनुसार -
वर्तमान में त्यागी शिक्षकों की कमी है और शिक्षक भी "अर्थ-प्रधान व्यवस्था की और
आकर्षित हो गये हैं । शैक्षणिक संस्थायें चलाने वाले अनुभवहीन लोग इसका व्यवसायीकरण करते
जा रहे हैं । परिणाम स्वरूप हम वास्तविक एवं गुणात्मक शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं । शिक्षा के
क्षेत्र में अत्यधिक प्रयोग भी शैक्षिक मूल्यों में गिरावट का बहुत बड़ा कारण है ।
सर्वसुलभ, सुसंस्कृत शिक्षा व्यवस्था, जिससे आने वाली पीढियाँ ईमानदार, कर्मठ,
मानवोचित गुणों से युक्त एवं संस्कारी हों, के पक्षधर अनिरूद्ध सिंह जी ने आजीवन इसके लिए
प्रयास किया और हमें इस विद्यालय प्रांगड़ में इन्हीं मूल्यों पर लगातार प्रयासरत रहने की प्रेरणा
आज भी उनसे प्राप्त होती रहती है ।
यह विद्यालय इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अग्रसर है । में आप सबसे सहयोग की अपेक्षा
रखता हूँ ।
डॉ ब्रजेश कुमार सिंह
प्रबंधक